छत्तीसगढ़ में रंगमंच का स्वरूप हमें प्राचीन काल से ही देखने को मिलता है जिसके प्रमाण सीता बेंगरा और जोगीमारा गुफा में बने प्रेक्षागृह हैं । छत्तीसगढ़ के जनजाति संस्करण में भी रंगमंच के उद्भव और विकास के प्रमाण स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं । जिसमें मुख्य रूप से रंगमंच की उत्पत्ति के प्रमाण बस्तर के जनजातियों में देखने को मिलता है।मुरीय जनजातियों द्वारा किया जाने वाला लोक नृत्य–नाटिका, माओ–पाटा की प्रस्तुति में रंगमंच के उद्भव और विकास प्रमाण उभर कर सामने आता हैं । यह एक ऐसा प्रमाण है जिससे हम यह मान सकते हैं कि आदिम संस्कृति के विकास के साथ-साथ रंगमंच का विकास भी होना शुरू हो गया होगा । माओ–पाटा की नृत्य प्रस्तुति में मनुष्य की प्रारंभिक जीवन सैली दिखाई जाती हैं , कैसे वो आदिम काम में जंगल में रहते हुए अपने जीवन यापन के लिए शिकार पर निर्भर था और भोजन जुटने के लिए शिकार करने के लिए जिन तैयार को किया जाता है और और शिकार के दौरान जिन समस्या से जूझना पड़ता हैं
उसकी प्रस्तुति माओ–पाटा में नृत्य–नाटिका के मध्यम से दिखाया जाता हैं ।और यही रंगमंच के उद्भाव के प्रमाण को मुरीया जनजातिके माओ–पाटा में देखा जा सकता हैं । इस आधार से समझा जा सकता हैं की छत्तीसगढ़ के रंगमंच का इतिहास प्राचीन काल से उपलब्ध हैं ।छत्तीसगढ़ के लोक संस्कृतियों में भी रंगमंचीय प्रमाण उभर कर सामने ही आ जाते हैं चाहे वह लोग गीत ददरिया हो सुआ या लोक गाथा पंडवानी ही क्यों न हो इन सब की प्रस्तुतियों में अभिनय की प्रधानता हैं । उदाहरण स्वरुप लोकगाथा पांडवानी की प्रस्तुति में एकल अभिनय की प्रधानता होती है इसीलिए बहुत से विद्वान इसे एकल नाटक का रूप भी मानते हैं और इसे लोकगाथा ना कहकर लोकनाट्य के समकक्ष खड़ा कर देते हैं । पंडवानी की प्रस्तुतियों में आंगिक अभिनय की प्रधानता होती हैं , वीर रस के साथ पंडवानी के संवादों को चित्रित किया जाता हैं इसीलिए बाकी लोग गाथाओं की अपेक्षा पंडवानी रंगमंच के समीप ज्यादा दिखाई देती है।
इसके अलावा छत्तीसगढ़ के लोकनाट्य नाचा जिसकी संपूर्ण प्रस्तुति प्रक्रिया रंगमंचीय प्रस्तुति के अनुरुप ही है । छत्तीसगढ़ में मुख्य रूप से तीन प्रकार के लोकनाट्य प्रमुखता से खेले और देखे जाते है जिसमें शीर्ष स्थान पर नाचा जिसकी प्रस्तुति छत्तीसगढ़ व छत्तीसगढ़ के बाहर भी खेला जाता हैं । दर्शक को नाचा देखना काफी पसंद हैं , इसीलिए नाचा देखने के लिए आज भी हजारों की संख्या में भीड़ इखट्टा होती हैं।उसी तरह रहस लोकनाट्य भी काफी लोकप्रिय लोकनाट्य में से एक है जिसकी अधिकतर प्रस्तुति बिलासपुर क्षेत्र में देखने को मिलती हैं । छत्तीसगढ़ में एक ऐसा भी लोकनाट्य है जिसका प्रभाव संपूर्ण छत्तीसगढ़ में न होकर बस्तर जिले तक ही सीमित दिखाई देती हैं । यह लोक नाट्य भतरा जनजाति के लोगों द्वारा प्रस्तुत कीया जाने वाला लोकनाट्य है इसका उद्गम स्थान उड़ीसा से है । बहुत से लोग इसे ओड़िया नाट से भी संबोधित करते हैं इस तरह समझा जा सकता है छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में रंगमंच का प्रभाव कितनी गहराई तक बसा हुआ हैं ।
छत्तीसगढ़ में आजादी से पहले और आजादी के बाद भी आधुनिक रंगमंच का स्वरुप दिखाई देता हैं । आजादी के पहले 1920 के शुरुआती दौर में कालीबाड़ी की स्थापना ने शहरी रंगमंच के बीज बोने का काम किया था क्योंकि प्रत्येक वर्ष दुर्गा पूजा के उत्सव पर बंगाली नाटक खेलने की परम्परा शुरू हुई थी और इसी परम्परा ने छत्तीसगढ़ में हिंदी रंगमंच को आकर्षित किया । क्योंकि 1927–28 में बंगाली नाटक के साथ अब दुर्गा मंडप में हिंदी नाटक भी प्रस्तुति किया जाने लगा था । 1906 के समय में लोचन प्रसाद का कपटी मुनि नामक नाटक के प्रमाण देखने को मिलते हैं इस आधार पे माना जा सकता हैं कि छत्तीसगढ़ के आधुनिक रंगमंच का इतिहास 100 साल से भी अधिक पुराना है ।
छत्तीसगढ़ में आजादी के बाद रायपुर बिलासपुर, भिलाई दुर्ग, राजनांदगांव और रायगढ़ में रंगमंच गतिविधियां बढ़ने लगी थी । 1970 से 1990 तक छत्तीसगढ़ में 100 से भी अधिक नाट्य संस्थान का दावा बहुत से विद्वान करते हैं और 1980 से 1990 को छत्तीसगढ़ के रंगमंच का स्वर्णिम काल माना जाता हैं । आप इस आधार पर समझ सकते हैं कि छत्तीसगढ़ का रंगमंच कितना पुराना और कितना मजबूत रहा होगा लेकिन वर्तमान समय में छत्तीसगढ़ का स्वरुप कहीं खोता हुआ दिखाई देता हैं । जिस उम्मीद से छत्तीसगढ़ की स्थापना होने से वहां के रंगकर्मियों में उम्मीद की एक किरण दिखाई दी थी वो अब समाप्त होता हुआ दिखाई देता हैं । क्योंकि प्रेक्षागृह और अभ्यास कक्ष जैसे मूलभूत वैवस्था के लिए आज भी भटकना पड़ता हैं । रंगमंच से रोजगार नहीं मिलता बल्कि उल्टा अपना पैसा ही लगा के दर्शकों को फ्री में मनोरंजन दिखाना पड़ता हैं । फिल्म ने रंगमंच को काफी नुकसान पहुंचाया हैं । अब नए युवक रंगमंच में इसलिए जुड़ना चाहते हैं कि वो फिल्म में अभिनय कर सके ।अब बड़े रंगकर्मी भी फिल्म को ही ज्यादा प्राथमिकता देते हुए दिखाया दे रहे हैं।
आज वर्तमान दौर में छत्तीसगढ़ में रंगमंच करने वाली ऐसी कोई एक भी संस्था नहीं है जिसका प्रभाव छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ के बाहर दिखाए देता हो ।छत्तीसगढ़ में अब बहुत ही कम रंगकर्मी हैं जो छत्तीसगढ़ के रंगमंच को लेकर गंभीरता से विचार करता हो, अधिकतर रंगकर्मी अपने करीबियों को ही बुलाकर खानापूर्ति करते हुए दिखाई देते हैं । कोई ऊर्जावान कलाकारों को बुलाना और उन को प्रोत्साहित करना यह सब दूर की खेती दिखाई देती है। रंगमंच अब हर कोई अपने शौक को पूरा करने के लिए ही करता है रंगमंच का स्वरूप छत्तीसगढ़ में अब धीरे-धीरे खोता हुआ नजर आ रहा है ।खाना पूर्ति के लिए कुछ वर्कशाप होते तो है लेकिन उन वर्कशॉप का भी प्रभाव न के बराबर ही है इस वर्कशॉप में भी वही रंगकर्मी जाते हैं जो पिछले वर्कशॉप में आए हुए होते हैं अब नए कलाकार उभरकर सामने नहीं आ रहे हैं या यह कहें पिछले 15 वर्ष से एक भी ऐसा रंगकर्मी नहीं हुआ जो अपने बलबूते पर रंगकर्म करता हुआ दिखाई दे । संस्कृति विभाग भी छत्तीसगढ़ के रंगमंच के लिए कुछ ऐसा करता हुआ दिखाई नहीं देता कि रंगमंच के प्रभाव को बनाया रखा जाए । आज वर्तमान समय में कुछ एक दो कलाकार ही हैं जो रंगमंच को बचाने के लिए कोशिश करते हुए दिखाई देते हैं जिसमें राजकमल नायक, अख्तर अली, जलील रिजवी, मणिमय मुखर्जी, सुभाष मिश्रा,डॉ योगेन्द्र चौबे जैसे नाम शामिल है।जिनके कारण छत्तीसगढ़ के रंगमंच में कुछ रंगमंचीय गतिविधियां होती रहती हैं ।
आज वर्तमान समय में छत्तीसगढ़ के रंगमंच को विश्लेषित करके उसको फिर से स्थापित करने की आवश्यकता है जिसके लिए हमारे वरिष्ठ रंगकर्मीयों को एक युवा रंग कर्मियों की एक पीढ़ी तैयार करने की आवश्यकता है क्योंकि अब ऐसी एक भी कोई नई रंग- संस्था या युवा रंगकर्मी नहीं है जो संपूर्ण भाव से रंगमंच करता हो । रंगमंच की आवश्यकता को समझते हुए छत्तीसगढ़ संस्कृति विभाग को भी रंगमंच को प्रोत्साहन देने के लिए कुछ योजनाएं शहर में व ग्रामीण क्षेत्रों में अवश्य चलाना चाहिए और जो नाटक संस्थाएं रंगकर्म कर रही है उनके लिए प्रेक्षाग्रह और रिहर्सल हॉल की व्यवस्था उपलब्ध कराने योग राशि दिया जाए ।जिस छत्तीसगढ़ के रंगमंच का इतिहास प्राचीन और पौराणिक आधार पर लिखा गया हो , जहां की लोक संस्कृती में रंगमंच तत्व हो , लोक नाट्य की अपनी एक परम्परा हो , हबीब तनवीर जैसे विश्व विख्यात रंगकर्मी हो उस छत्तीसगढ़ में रंगमंच का वर्तमान स्वरुप कहीं खोता हुआ दिखाई देता हैं ।उम्मीद है कि आने वाला समय छत्तीसगढ़ के रंगमंच के लिए अच्छा होगा और छत्तीसगढ़ का रंगमंच अपने प्राचीन इतिहास के अनुरूप प्रदेश व प्रदेश के बाहर अपना परचम लहराएगा ।
समीक्षा | शिशु कुमार सिंह खैरागढ़ छत्तीसगढ़ के युवा रंगकर्मी हैं
आवाज फिल्म एंड थियेटर सोसायटी के संस्थापक और इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय के शोधार्थी हैं |