1856 की घटना तो हम सब भली-भांति जानते हैं, जब छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शहीद वीर नारायण सिंह ने हज़ारों किसानों को साथ लेकर कसडोल के जमाखोरों के गोदामों पर धावा बोलकर सारे अनाज लूट लिए व दाने-दाने को तरस रही प्रजा में बांट दिए। फलस्वरूप अंग्रेज़ों ने 1857 में उन्हें बीच चौराहे में बांधकर फांसी दे दी और अंत में उनके शव को तोप से उड़ा दिया।

आज 10 दिसंबर को हम उनकी जयंती मना रहे हैं, तो इस उपलक्ष्य में मैं आप सबसे पूछना चाहती हूं कि उनकी तरह क्या कोई व्यक्ति आज के ज़माने में निस्वार्थ कार्य करता है? इसका सीधा सा जवाब है, बिल्कुल नहीं।
आज की स्थिति ऐसी है कि आप अपनी कुशलता, ज्ञान व काबिलियत के अलावा किसी अन्य चीज़ पर भरोसा नहीं कर सकते हैं, ना सरकार पर और ना ही अपने क्षेत्र के नेताओं पर। मेरा मानना है कि आज के ज़माने में हमें आत्मनिर्भर एवं सशक्त बनने की ज़रूरत है। सर्वप्रथम हमें कानून की जानकारी होनी चाहिए, खासतौर पर हमें अपने मौलिक अधिकारों को जानना अति आवश्यक है।
वे ज़रूरी कानून और मौलिक अधिकार, जिनकी जानकारी हमारे लिए ज़रूरी है
इसके साथ ही हमें Forest Rights Act, 2006 के बारे में जानकारी होनी चाहिए, क्योंकि यह अधिनियम जंगलवासी अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वनवासियों को महत्वपूर्ण अधिकार देता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दूसरों के लिए वह सिर्फ जंगल होगा पर वनवासियों के लिए वह जीविका का साधन है, उसमें उनकी आस्था बसती है।

अफसोस की बात है कि जंगल का संरक्षण कर रहे हमारे भाई-बहनों को बदले में जो मिलता है वह भयावह है। उन्हें यह कहकर बदनाम किया जा रहा है कि वे पर्यावरण को खराब करते हैं। अरे! यह दावा करने से पहले कम-से-कम संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट देख लेते, जो साफ-साफ कहता है कि जहां-जहां आदिवासी निवास करते हैं, वहां पर्यावरण संरक्षित रहता है।
क्यों उनका ध्यान उन जगहों पर हो रहे माइनिंग या औद्योगिक कार्यों पर नहीं जाता? हसदेव अरण्य में फर्ज़ी ग्रामसभा बैठाकर अडानी माइनिंग प्रोजेक्ट के लिए अनुमति दी गई थी। इतना ही नहीं आज कल ग्राम पंचायतों को बदलकर उन्हें नगर पंचायतों में तब्दील करने का प्रयास किया जा रहा है ताकि कानूनी औपचारिकताओं को लांघकर कार्य किया जा सके।। छत्तीसगढ़ के प्रेमनगर ग्राम पंचायत को परिवर्तित कर नगर पंचायत बना दिया गया।

भारतीय दंड संहिता व दंड प्रक्रिया संहिता
हमें भारतीय दंड संहिता (IPC) व दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) का भी ज्ञान होना अत्यावश्यक है। इनके महत्व का अंदाज़ा आदिवासी क्षेत्रों और खासकर के बस्तर में हो रहे मानवाधिकारों के हनन से अच्छी तरह लगाया जा सकता है। अभी हाल ही में सारकेगुड़ा के मुठभेड़ की रिपोर्ट सामने आई, सोनी सोरी के जेल में क्या हुआ उसे पढ़कर किसी की भी रूह कांप जाएगी। अपने हक के लिए आवाज़ उठा रहे आदिवासियों को कैसे पुलिसकर्मी पकड़ कर ले जाते हैं और कैसे हमारे नेता चुप्पी साधे बैठे रहते हैं, उस पर हमें गौर करने की ज़रूरत है।
विलुप्त होती आदिवासी भाषाओं के प्रति हमारी ज़िम्मेदारी
एक और चीज़ जिस पर हमें ध्यान देने की ज़रूरत है वह यह कि उन क्षेत्रों में जो Corporate Social Responsibility के तहत आश्रम, शिक्षा संस्थान आदि स्थापित किए गए हैं, वह कहीं-ना-कहीं धीरे-धीरे उनकी मूल संस्कृति नष्ट कर रहे हैं। अच्छी बात है कि आदिवासी बच्चों को शिक्षा, खाना, आशियाना आदि मिल रहा है परंतु वे कहीं-ना-कहीं अपनी मूल संस्कृति भूल रहे हैं।
हम कट्टरता में विश्वास नहीं करते इसलिए उनका आश्रमों की संस्कृति सीखना कोई गलत बात नहीं है पर उनके अभिभावकों की ज़िम्मेदारी है की वे यह सुनिश्चित करें कि वे अपनी मूल संस्कृति ना भूलें। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि UNPFII के अनुसार हर 2 हफ्तों में एक ट्राइबल भाषा विलुप्त होती है। भाषा का संस्कृति को जीवित रखने में क्या महत्व है, हम भली-भांति जानते हैं।

शहीद वीर नारायण जी का उपनाम “सिंह” था, इस वजह से लोग उन्हें राजपूत समझते थे और आश्चर्य की बात है कि शिक्षा विभाग ने 2018 में जब निर्देशित किया तब ही उन्हें आधिकारिक रूप से आदिवासी माना गया। ज़रूरी यह है कि हम अपना असली उपनाम ही लिखें नहीं तो हमें भी इस तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।
आदिवासी प्रतिभाओं को सामने लाना ज़रूरी
आज क्यों प्रतिभा होने बाद भी आदिवासी खिलाड़ियों का कहीं नाम नहीं? आज क्यों हम ध्यानचंद जी, धनराज पिल्ले जी आदि का नाम जानते हैं पर जयपाल मुंडा जी, दिलीप टिर्की जी आदि का नाम नहीं जानते? हमें दूसरों पर भरोसा नहीं करना चाहिए कि वे हमारा प्रचार करेंगे बल्कि आज यह ज़रूरी है की हम अधिक-से-अधिक सोशल मीडिया का सदुपयोग कर अपने समाज की लोगों से पहचान कराएं।
अपने आस-पड़ोस में यदि आपको कोई भी प्रतिभाशाली व्यक्ति दिखे तो तुरंत उसका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया में पोस्ट करें ताकि उनके बारे में लोगों को पता चले। अधिकांश आदिवासियों की प्रतिभा को इसलिए एक मंच नहीं मिल पाता, क्योंकि उन्हें कोई राह दिखाने वाला नहीं होता।
हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि Oxfam की स्टडी के अनुसार अखबारों, टीवी चैनलों आदि में SC/ST पत्रकारों की संख्या ना के बराबर है। इतना ही नहीं उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय में आज तक कितने ही आदिवासी जज नियुक्त किए गए हैं, यह हमें नहीं भूलना चाहिए। जब लोकतंत्र के 2 सबसे मुख्य स्तंभों में ही हमारा प्रतिनिधित्व नहीं है, तो हमारे पास सशक्तिकरण व आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता है।
ज़रूरी है कि जो आदिवासी कामयाब हो चुके हैं, वे बाकी आदिवासियों को मार्ग दर्शन दें व उनकी हर तरीके से सहायता करें। आदिवासी नेता, जो उनका फायदा उठाकर उन्हें याद तक नहीं करते, उन्हें यह बात नहीं भूलना चाहिए कि अपने समाज के लोगों के बिना वे एक तिनके के बराबर भी नहीं हैं। हमें भी यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि अब शहीद वीर नारायण सिंह जैसे व्यक्ति हमें नहीं मिलेंगे।
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लेखिका के बारे में- प्रज्ञा उईके लेखिका और कवयित्री हैं। यह हिदायतुल्ला नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, रायपुर से वकालत की पढ़ाई कर रही हैं। यह गोंड जनजाति से ताल्लुक रखती हैं। इन्हें सामाजिक मुद्दों (आदिवासी, वंचित समुदाय और जेंडर भेदभाव जैसे मुद्दे) पर लिखना पसंद है। आप इन्हें ट्वीटर पर भी फॉलो कर सकते हैं- @PragyaUike
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